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Showing posts from July, 2008

जब तेरी समन्दर आँखों में / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

ये धूप किनारा शाम ढले मिलते हैं दोंनो वक्त जहाँ जो रात न दिन, जो आज न कल पल भर में अमर, पल भर में धुंआँ इस धूप किनारे, पल दो पल होठों की लपक, बाँहों की खनक ये मेल हमारा झूठ न सच क्यों रार करें, क्यों दोष धरें किस कारण झूठी बात करें जब तेरी समन्दर आँखों में इस शाम का सूरज डूबेगा सुख सोयेंगे घर-दर वाले और राही अपनी राह लेगा Cited from:http://hi.literature.wikia.com/wiki,dated, 25-07-2008

आँख से दूर न हो / फ़राज़

आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जायेगा ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जायेगा ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़" ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा Advertisement " http://hi.literature.wikia.com/wiki , dated:०५-०७-2008