Skip to main content

दीपावली २०११



दीपावली २०११

चलो इस बार फ़िर

एक मिट्टी के दिये से दोस्ती करें

उसकी

टिमटिमाती हल्की पीली लौ में

अन्धेरे और रौशनी के सम्बन्धों को परिभाषित करें

कि क्या

रोशनी और अन्धेरे का युद्ध शाश्वत है

या फ़िर

रौशनी का सन्दर्भ घना अन्धेरा है?

सम्बन्ध द्वेष का है सदा क्या

या

दोनों की समञ्जस सुन्दरता का?

मेरे मित्र

तुम्हारी तो किसी दिये दोस्ती होगी ही

तुमने तो और दिये से दिए जलाए होंगे

अपनी मनुष्यता के फ़र्ज निभाए होंगें

तो चलो, इस दीपावली पर

इस बार मुझे भी साथ ले चलो

मेरी भी किसी मिट्टी के दिये से

दोस्ती करा दो

उसकी रोशनी में नहला दो, और

मुझे

आगे के दो कदम चलने का

रास्ता तो दिखला दो ! ! !

मिट्टी के दिए की रौशनी से आपको और आपके परिवार को प्रकाश भरी शुभकामनाएँ

सादर

आशुतोष आंगिरस

Oct 16

Popular posts from this blog

अज आखां वारिस शाह नू - अमृता प्रीतम

अज आखां वारिस शाह नू कितों कबरां विचो बोल ! ते अज किताब -ऐ -इश्क दा कोई अगला वर्का फोल ! इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख -लिख मारे वेन अज लखा धीयाँ रोंदिया तैनू वारिस शाह नू कहन उठ दर्मंदिया दिया दर्दीआ उठ तक अपना पंजाब ! अज बेले लास्सन विछियां ते लहू दी भरी चेनाब ! किसे ने पंजा पानीय विच दीत्ती ज़हिर रला ! ते उन्ह्ना पनिया ने धरत उन दित्ता पानी ला ! जित्थे वजदी फूक प्यार दी वे ओह वन्झ्ली गई गाछ रांझे दे सब वीर अज भूल गए उसदी जाच धरती ते लहू वसिया , क़ब्रण पयियाँ चोण प्रीत दियां शाहज़ादीआन् अज विच म्जारान्न रोण अज सब ‘कैदों ’ बन गए , हुस्न इश्क दे चोर अज किथों ल्यायिये लब्भ के वारिस शाह इक होर aaj आखां वारिस शाह नून कित्तों कबरां विचो बोल ! ते अज किताब -ऐ -इश्क दा कोई अगला वर्का फोल ! Cited From: http://www.folkpunjab.com/amrita-pritam/aj-akhan-waris-shah-noon/ Date:11-4-2008

चुनिंदा शायरी -कंचन

तू रख होंसला वो मंजर भी आएगा। प्यासे के पास चलकर समंदर भी आएगा। थक हार कर न रुकना ऐ मंजिल के मुसाफ़िर, मंजिल भी मिलेगी और मिलने का मज़ा भी आएगा। जिंदगी की असली उडान अभी बाकी है। जिंदगी के कई इम्तिहान अभी बाकी है। अभी तो नापी है मुट्ठी भर  ज़मीन हमने , अभी तो सारा आसमान बाकी है। आंधियों  में भी जैसे कुछ  चिराग़  जला करते हैं। उतनी ही हिम्मत ऐ होंसला हम भी रखा करते हैं। मंजिलों , अभी और दूर है हमारी मंजिल , चाँद सितारें  तो राहों में मिला करते हैं। संग्रहकर्ता : कंचन बी ए 3.  

दुनिया का बोझ- किरणदीप कौर

दुनिया का उठाकर बोझ , खुद एक बोझ कहलाई है . हारकर ख़ुशी अपनी , जीत में दुःख ही लायी है . होंठो पर लाकर हंसी , आँखों की नमी छुपायी है . पत्नी बनकर किसी का घर बसाया , तकलीफें सहकर माँ कहलाई है . अँधेरे में रहकर रौशनी बनी खुद फिर भी क्यों , ये दुनिया को नहीं दिख पाई है . आसमान में ऊँचा है इसका वजूद , समंदर से गहरी इसकी गहराई है . फूल से भी नाजुक तन है इसका , पर्वतों से भी कठोर इसकी परछाई है . पहेली है ये अजीब कितनी , सुलझ कर भी नहीं सुलझ पाई है . हाय रे ! कैसी किस्मत , एक लड़की लेकर आई है . किरणदीप कौर , बीए प्रथम वर्ष (648) Citation: http://www.scribd.com/doc/238603188/Sophia-Year-3-No-1-September-2014