दुनिया का उठाकर बोझ , खुद एक बोझ कहलाई है . हारकर ख़ुशी अपनी , जीत में दुःख ही लायी है . होंठो पर लाकर हंसी , आँखों की नमी छुपायी है . पत्नी बनकर किसी का घर बसाया , तकलीफें सहकर माँ कहलाई है . अँधेरे में रहकर रौशनी बनी खुद फिर भी क्यों , ये दुनिया को नहीं दिख पाई है . आसमान में ऊँचा है इसका वजूद , समंदर से गहरी इसकी गहराई है . फूल से भी नाजुक तन है इसका , पर्वतों से भी कठोर इसकी परछाई है . पहेली है ये अजीब कितनी , सुलझ कर भी नहीं सुलझ पाई है . हाय रे ! कैसी किस्मत , एक लड़की लेकर आई है . किरणदीप कौर , बीए प्रथम वर्ष (648) Citation: http://www.scribd.com/doc/238603188/Sophia-Year-3-No-1-September-2014