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देशधर्म क्या होता है..................



देशधर्म क्या होता है, ये हिन्दू मुस्लिम क्या जाने?
जिसने देहरी पार न की, मौसम की रंगत क्या जाने?
जिनको नींद नहीं मिलती है, भूखी नंगी रातों में,
वो रोटी पेट समझने वाले, स्वप्न हकीकत क्या जाने?
गीदड़ के शागिर्दों की अब, फौज बड़ी चाहे जितनी हो,
...
जूंठे टुकड़ों पर पलने वाले, शेरों की ताकत क्या जाने
उनसे आशा क्या करना जो, माँ पर छुरी चलाते हों,
वो अर्थशास्त्री पैसे वाले, आँसू की कीमत क्या जाने?
ताज पहन कर करें गुलामी, ऐसे मुर्दों की कमी नहीं,
चमचागीरी करने वाले, अपना फर्ज निभाना क्या जाने?
 
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June 3,2013

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अज आखां वारिस शाह नू - अमृता प्रीतम

अज आखां वारिस शाह नू कितों कबरां विचो बोल ! ते अज किताब -ऐ -इश्क दा कोई अगला वर्का फोल ! इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख -लिख मारे वेन अज लखा धीयाँ रोंदिया तैनू वारिस शाह नू कहन उठ दर्मंदिया दिया दर्दीआ उठ तक अपना पंजाब ! अज बेले लास्सन विछियां ते लहू दी भरी चेनाब ! किसे ने पंजा पानीय विच दीत्ती ज़हिर रला ! ते उन्ह्ना पनिया ने धरत उन दित्ता पानी ला ! जित्थे वजदी फूक प्यार दी वे ओह वन्झ्ली गई गाछ रांझे दे सब वीर अज भूल गए उसदी जाच धरती ते लहू वसिया , क़ब्रण पयियाँ चोण प्रीत दियां शाहज़ादीआन् अज विच म्जारान्न रोण अज सब ‘कैदों ’ बन गए , हुस्न इश्क दे चोर अज किथों ल्यायिये लब्भ के वारिस शाह इक होर aaj आखां वारिस शाह नून कित्तों कबरां विचो बोल ! ते अज किताब -ऐ -इश्क दा कोई अगला वर्का फोल ! Cited From: http://www.folkpunjab.com/amrita-pritam/aj-akhan-waris-shah-noon/ Date:11-4-2008

चुनिंदा शायरी -कंचन

तू रख होंसला वो मंजर भी आएगा। प्यासे के पास चलकर समंदर भी आएगा। थक हार कर न रुकना ऐ मंजिल के मुसाफ़िर, मंजिल भी मिलेगी और मिलने का मज़ा भी आएगा। जिंदगी की असली उडान अभी बाकी है। जिंदगी के कई इम्तिहान अभी बाकी है। अभी तो नापी है मुट्ठी भर  ज़मीन हमने , अभी तो सारा आसमान बाकी है। आंधियों  में भी जैसे कुछ  चिराग़  जला करते हैं। उतनी ही हिम्मत ऐ होंसला हम भी रखा करते हैं। मंजिलों , अभी और दूर है हमारी मंजिल , चाँद सितारें  तो राहों में मिला करते हैं। संग्रहकर्ता : कंचन बी ए 3.  

इस नदी की धार में -- दुष्यन्त कुमार

  इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों, इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है। एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी, ... आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है। एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी, यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है। निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी, पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है। दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर, और कुछ हो या न हो, आकाश- सी छाती तो है। - दुष्यन्त कुमार   From the Facebook Status of Satya Pal Kataria June 03,2013